अब क्या बताऊ तुम्हे
बताने को कुछ रहा ही नहीं
मेरी खामोशी समझ पाओ
तो वो ही सही|
वक़्त और रिश्तो की जंग में
शब्द लड़खड़ा रहे हैं
और मैं,
मैं बेहतर जानकर भी
उन्हें ही दोष देती हू –
ऐसा करने पर सुकूं जो मिलता है
खोटा ही सही|
इस सन्नाटे में
सांस लेना भी कठिन है
’तुम्हारे फेफडों से भी यही हवा गुज़रती है’
यह ख्याल मात्र
कुछ परिचित से आभास को खींच लता है
उन बिछडे लम्हों से
उन बिखरे रंगों से
उन गुजरी बातों से
उन टूटे वादों से……..
और
उस काल से
जहाँ ना कहने में भी
भरपूर अर्थ था|
पर अब क्या बताऊ तुम्हे
जब अर्थ ही अलग हो गए है…..
I thank Vartika, for being kind enough to help me edit this one